बातों बातों में ही कुछ बात निकल जाती है
नासाज तबीयत भी मुस्का के मचल जाती है ।
गर हो जाए जरा सी भी खुदा की रहमत
चंद लम्हों में भी तकदीर
बदल जाती है ।
आज के दौर में फितरत है
ये सियासत की
रूह को कत्ल कर जज्बों को
निगल जाती है ।
बहुत पहले ही कह गए ये खुदा के बंदे
जिंदगी रेत है मुट्ठी से फिसल जाती है ।
मेरे महबूब की चाहत का है ये कैसा असर
शाम होते ही शमां याद की जल जाती है ।
बिता के साथ में उनके हसीन कुछ घड़ियां
धूप जीवन की मेरे बर्फ सी गल जाती है ।
बुझी-बुझी सी अब रंगत हुई है खेतों की
शहर की आग यूं गांवों को निगल जाती है ।
समां क्यूं हो गया ऐसा है “देव” दुनिया का
शजर की छांव अब सरसर* से दहल
जाती है ।
...... देवकान्त
पाण्डेय
*गर्म हवा के झोंके