मेरी अनुमति के बिना इस ब्‍लाग की किसी भी सामग्री का किसी भी रूप में उपयोग करना मना है । ........ देव कान्‍त पाण्‍डेय

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मन के घाव


मेरे जीवन की कथा में थोड़ी छाँव है थोड़ी धूप है,
जिंदगानी के सफ़र का देखिए क्या रूप है,
आज खोली है हृदय की मैंने अपनी डायरी,
मन मेरा तो वेदना से आप्लावित कूप है ।

जेठ की दारूण तपन जब लू भी थी ऊफान पर,
मैंने कुटिया थी बनाई रेत के मैदान पर,
मुझको नगर में बसने की आख़िर इजाज़त थी नहीं,
ना ठांव दूजा था कहीं...वहीं बस गया तो बस गया ।
                         
वो हमारे द्वार आया था सहारा माँगने,
उंगलियाँ पकड़ी थी, फिर पहुँचा लगा था थामने,
और एक दिन फिर उसी ने मेरी कुटिया छीन ली,
था आदमी वो 'आज का'... बस छल गया तो छल गया ।

मैंने स्वप्नों का बनाया था कभी एक आशियाँ,
जब तलक थी छत बनी तो चुप पड़ीं थीं आँधियाँ,
जैसे ही मेरे द्वार के श्रृंगार का आया समय,
बस आँधियों का वेग था... घर ढह गया तो ढह गया ।

इश्क़ की गहराइयों में मैं भी उतरा था कभी,
मुझे अपनों ने ही दगा दिया, मेरे काम ना आया कोई,
अपने विफल उस प्यार का मुझको नही अफ़सोस है,
प्यार यद्यपि था वो पहला....बस.. रह गया तो रह गया ।

जब बजी थीं घर में उसके प्रीति की शहनाइयां,
दिल में मेरे पसरी थीं बस दूर तक तनहाइयाँ,
फिर भी खुद डोली बिठाया मैंने अपने प्यार को,
आँखों ने था नम हो देखा प्रेम के इस हार को,
और फिर उस प्रेम की बातें पुरानी सोचकर....
आँखों से आँसू का दरिया बह गया तो बह गया।

मैंने सुनाया आपको जो मन के मेरे भाव थे,
मैंने दिखाया आपको जो मन के मेरे घाव थे,
आपने कैसे लिया... ये आप ही हैं जानते,
मैं तो भावों मे बहा... बस बह गया तो बह गया।

हर कोई है भोगता सुख-दुख इसी संसार में,
कह दिया मैंने जो कहना था खुले बाजार में,
कह के देखो हो गया इस दिल की पीड़ा का शमन,
मैं भी कहते कहते ही... अब थम गया तो थम गया ।
                                                                      ...देवकान्‍त पाण्‍डेय 

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