कब तक ? आख़िर कब तक ?
लोग रहेंगे भयाक्रांत, जलता रहेगा हर प्रांत
फटते रहेंगे बम सड़कों चौराहों पर
" वे " हँसते रहेंगे हमारी आहों पर चलता रहेगा मौत का यह कुत्सित खेल
और हम होते रहेंगे अपनी योजनाओं में फेल
कब तक ? आख़िर कब तक ?
छूटता रहेगा अपनों का साथ
बच्चे होते रहेंगे अनाथ
उजड़ता रहेगा सुहागिनों के मांग का सिन्दूर
छिनते रहेंगे माँओं से आंखों के नूर
सरकार दावे पे दावे करती रहेगी
और मानवता सड़कों पे यूँही मरती रहेगी
कब तक ? आख़िर कब तक ?
सार्थक रचना है।बधाई।
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